कश्मीर के पंपोर में तीन लाख साल पुराने हाथी के जीवाश्म मिले हैं, जिनसे पता चला कि आदिमानव हड्डियों से मज्जा निकालकर खाते थे और पत्थर के औजारों का इस्तेमाल करते थे।
विजय नाराण सिंह, कश्मीर के पंपोर में तीन से चार लाख साल ( मध्य प्लेइस्टोसिन काल ) पहले विशालकाय हाथियों और आदिम मानव की एक रहस्यमयी कहानी है। इसके प्रमाण पंपोर में मिले हाथियों के जीवाश्म हैं। यह उस प्रागैतिहासिक युग की बात है, जहां प्रागैतिहासिक मानव का विशालकाय जानवरों की चुनौतियों से सामना होता था। शोधकर्ताओं ने पाया कि मानवों ने उसकी हड्डियों से मज्जा निकाल कर भोजन के रूप में इस्तेमाल किया होगा। इसमें पर्याप्त वसा और ऊर्जा होती है। जो प्रागैतिहासिक मानवों की उच्च तकनीक को दर्शाता है। इस शोध से जबलपुर में नर्मदा से लेकर कश्मीर तक प्राचीन मानव गतिविधियों और विलुप्त प्रजातियों के बारे में महत्वपूर्ण जानकारी मिलती है। शोध में पता चला की यह जीवाश्म एशियाई हाथी पैलियोलोक्सोडोन तुर्कमेनिकस का है, जो अब विलुप्त हो चुका है। यह अफ्रीकी हाथियों से करीब दो गुणा बड़ा था। हालांकि भारत में पहले मानव का जीवाश्म मध्य प्रदेश में नर्मदा के किनारे हथनोरा में 1982 में मिला था। जो हाथियों के जीवाश्म के बाद का है। नर्मदा मानव के जीवाश्म की आयु 50 हजार से 1.60000 लाख साल आंकी गई है। हो सकता है इन मानवों से पहले होमो इरेक्टस या कोई अन्य प्रजाति मौजूद थी।
जीवाश्म मिलने की कहानी भी बहुत रोचक है। सोपोर महाविद्यालय के छात्रों का दल शैक्षणिक भ्रमण पर पंपोर पहुंचा तो उन्होंने देखा कि रेल लाइन बिछाने के लिए मजदूर मिट्टी उठा रहे हैं। उन्हीं में से छात्र फैयाज अहमद को एक स्थान पर कुछ असामान्य सी वस्तु दिखाई पड़ी। कौतूहलवश उसने अपने साथियों के साथ उस वस्तु का बारीकी से निरीक्षण किया। विशेष कुछ समझ में नहीं आने के बाद उन्होंने इसकी जानकारी कश्मीर विश्वविद्यालय में जियोलोजी विभाग में उस समय रीडर रहे श्री जी एम बट को दी। उन्होंने बिना देर किए मौके पर जाकर निरीक्षण किया और वहां उत्खनन कराने का निर्णय किया। यह कार्य 31 अगस्तत से छह सितंबर 2000 तक चलता रहा। करीब 60 फुट की गहराई में तीन हाथियों के जीवाश्म मिले। इनमें से एक किशोर वय का था। हिरन और कुछ अन्य जानवरों के भी जीवाश्म मिले। वहीं पास में ही प्राचीन मानव द्वारा उपयोग किए गए 87 पत्थर के औजार भी मिले। पहले मिले एक पत्थर को उन्होंने चकमक पत्थर समझ कर एक तरफ फेंक दिया। जब और पत्थर मिले तो उन्होंने बारीकी से इनका निरीक्षण किया। तब उल्हें समझ में आया कि यह पत्थर तो बेसाल्ट हैं। इन पत्थरों का मिलना चौंकाने वाला था, क्योंकि यह पत्थर स्थानीय नहीं थे। शायद आदि मानव इन पत्थरों को बाहर कहीं से लेकर यहां आए होंगे।
इन सभी जीवाश्मों और पत्थर के औजारों को जम्मू विश्विद्यालय के वाडिया म्यूजियम आफ नेचुरल हिस्ट्री में सुरक्षित रखवा दिया। इस समय तक श्री बट जम्मू विश्वविद्यालय में प्रोफेसर के रूप में पदभार ग्रहण कर चुके थे। इनमें से एक जीवाश्म का सिर काफी बड़ा था। 2019 तक किन्ही कारणों से इन जीवाश्मों पर शोध नही हो सका। यह अब तक जियोलोजिकल रिकार्ड में मिले किसी भी हाथी के जीवाश्म से 63 प्रतिशत बड़ा था। यहां इसे एलिफस नेमेडिकस नाम दिया गया। इसके बाद लंबे समय तक यह शोध के इंतजार में पड़ा रहा। अंततः प्रोफेसर बट ने इसके फोटो और विस्तृत जानकारियां दुनिया के कई विश्वविद्यालयों और शोध संस्थानों को भेजे। अंततः 2019 में ब्रिटश म्यूजियम ने इस पर शोध के लिए कुछ फंड जारी किया। साथ ही दो साइंटिस्ट को भी शोध के लिए भेजा। एक अमेरिकी वैज्ञानिक भी इस टीम के साथ जुड़ गया। टीम ने कोविड काल में ही जम्मू विश्विद्यालय का दौरा किया। 2024 के अंत में शोध रिपोर्ट क्वाटर्नरी साइंस रिव्यू और जर्नल आफ वर्टिब्रेट पैलियोंटोलोजी में प्रकाशित हुई।
शोध में क्या मिला?
- इस जीवाश्म की पहचान पैलियोलोक्सोडोन तुर्कमेनिकस के रूप में हुई।
- दांतों पर मौजूद इनेमल में प्रोटीन के माप और पत्थरों के औजारों के विश्लेषण से आयु तीन से चार लाख साल निकाली गई
- इसकी ऊंचाई करीब 04 मीटर रही होगी
- इसका वजन करीब 12 से 14 टन रहा होगा।
- इसकी खोपड़ी का साइज 4 गुणा 5 फुट है।
- दो टस्क यानि बाहर दिखने वाले दांत, जो टूटे हुए थे। एक का साइज एक फुट और दूसरे का साइज तीन फुट है।
- पसलियों की टूटी हुई कुछ हड्डियां।
शोध का विशेष महत्व
भारतीय उप महाद्वीप में आदिम मनुषयों द्वारा विशाल जानवरों के उपभोग का पहला प्रमाण है। यह स्थान एकमात्र मध्य प्लेइस्टोसिन युग से संबंधित है, जहां यह जीवाश्म और पत्थर के औजार मिले हैं। इसकी खोपड़ी में भारत के अन्य पैलियोलोक्सोडोन की खोपड़ियों की तरह मोटी शिखा (क्रेस्ट) नहीं थी। यह 1950 में तुरकमेनिस्तान में मिली खोपड़ी से कुछ-कुछ मिलती है। यह अभी सेंट पीटर्सबर्ग के म्यूजियम में रखी है। खासकर यह प्रजाति मध्य एशिया से लेकर उत्तर भारतीय उपमहाद्वीप तक फैली हुई थी। इसे हाथियों की प्रजाति के विकासक्रम में मिसिंग लिंक की कड़ी भी माना जा रहा है।
संदेह है कि हाथी का शिकार किया होगा
शोधकर्ताओं ने मानवीय गतिविधियों के संदर्भ में ही इस शोध को देखा है। शोध से बिल्कुल की यह स्पष्ट नहीं होता कि उस समय मानव इन विशालकाय जीवों का शिकार करते थे या मृत जानवरों के शवों को भोजन के लिए उपभोग करते थे। भारतीय उप महाद्वीप में प्रारंभिक मानव और हाथी के संपर्क का पहला और ठोस साक्ष्य है। हालांकि दुनिया के कई अन्य हिस्सों में प्राचीन मानव अस्थि मज्जा के लिए बड़े जानवरों का उपभोग करते थे, लेकिन भारत मेंइसके कोई साक्ष्य नहीं थे। फ्लोरिडा म्यूजियम आफ नेचुरल हिस्ट्री के क्यूरेटर और शोधकर्ताओं में शामिल रहे अद्वैत जूकर ने बताया की खोपड़ी की हड्डियों के आकार प्रकार और विकृतियों की जांच के आधार पाया गया कि यह हाथी बिल्कुल युवा था और साइनसाइटिस से पीड़ित था। हाथियों में यह संक्रमण बहुत सामान्य बात होती है।
पंपोर में नहीं मिलता बेसाल्ट पत्थर
जिन प्रागैतिहासिक मानवों ने हाथी की हड्डियों से मज्जा निकालने के लिए पत्थर के जिन औजारों का इस्तेमाल किया था वे पत्थर पंपोर और उसके आसापास के इलाकों में नहीं पाया जाता। यह दक्कन के ट्रैप में पाया जाता है। विशेषकर मध्य प्रदेश, गुजरात,तमिलनाडु, कर्नाटक और महाराष्ट्र में प्रचुर मात्रा में पाया जाता है। राजस्थान के कुछ हिस्सों में भी पाया जाता है। स्थानीय लोग इसे चकमक पत्थर बोलते हैं। टूटने पर इसमें तेज धार बनती है। इसी धार का इस्तेमाल प्रागैतिहासिक मानव शिकार को काटने और छीलने में करते थे। इसका निर्माण ज्वालामुखी गतिविधियों से होता है।
आर्द्र, उपजाऊ, हरा भरा था पंपोर
पंपोर जो आज कश्मीर घाटी में है। वह हिमालय की तलहटी में था। आर्द्र, शुष्क, उपजाऊ और घने जंगलों वाला इलाका रहा होगा। घास के मैदान, जलस्रोत, नदियों , झीलों, दलदल और मौसमी बाढ़ वाले मैदानों से युक्त था। हिमालय के युवा भूगर्भीय संरचनाओं के बीच में स्थित था। हिमालय का निर्माण इस समय भी जारी था। सक्रिय टेक्टानिक गतिविधियों , नदी घाटियों का निर्माण हो रहा था। ऐसी परिस्थितियां हाथियों के साथ ही गैंडे, हिरन ,तेंदुए, जंगली बिल्लियों समेत अन्य जानवरों के पर्यावास के अनुकूल था। इसस वजह से वहां जटिल जारिस्थितिकी तंत्र का निर्माण होता था।